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कविता

प्रतिरोध

प्रतिभा कटियार


मौन की जमीन पर
भी उग ही आते हैं प्रतिरोध के बीज
आसमान के पल्लू में बाँधकर रखी गई
तमाम खामोशियाँ
लेने लगती हैं आकार
धरती से आसमान तक
बरपा होने लगता है
चुप्पियों का शोर
अब नहीं, अब और नहीं
नहीं चलेगी अब कोई संतई
नहीं सेंकने देंगे सत्ता की रोटियाँ
हमारे जिस्मों की आँच पर
नहीं बहने देंगे एक भी बूँद खून
न सरहद पर, न सरहद पार
न, कोई सफाई नहीं देंगे हम
दुनिया के हाकिमों,
खोलो अपनी जेलों के दरवाजे
ठूँस दो दुनिया की तमाम हिम्मतों को
जेलों के भीतर
आम आदमी की चेतना का सीना
तुम्हारे आगे है...
रंग कोई नहीं है हमारे झंडों का
बस कि रगों में दौड़ते खून का रंग है लाल...
 


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